25+ harivansh rai bachchan poems in Hindi | 25+ हरिवंश राय बच्चन की प्रेरणादायक कविताएं
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना उसे ना अखरता है।
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जाकर खाली हाथ लौट कर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो जाओ, नींद चैन को त्यागो तुम, यूं संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किए बिना ही जय जयकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की, कभी हार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
तुम तूफान समझ पाओगे
तुम तूफान समझ पाओगे?
गीले बादल, पीले रजकण, सूखे पत्ते, रूखे तृण घण लेकर चलता करता हरहर । इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था, लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ, नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को!
हटो विहंगम, उड़ जाओगे! तुम तूफान समझ पाओगे?
अँधेरे का दीपक
है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था, भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई, कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना,
पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरंतर,
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए, पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?
था तुम्हें मैंने रुलाया
हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था, एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर,
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
जो बीत गई सो बात गई
जो बीत गई सो बात गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया ।अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे ।
जो छूट गए फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर अम्बर कब शोक मनाता है ।
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम, थे उसपर नित्य निछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया ।
मधुवन की छाती को देखो, सूखी कितनी इसकी कलियाँ, मुझाई है कितनी वल्लरियाँ ।
जो मुझाई फिर कहाँ खिली, पर बोलो सूखे फूलों पर, कब मधुवन शोर मचाता है ।
जो बीत गई सो बात गई, जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में मधु का प्याला था, तुमने तन मन दे डाला था, वह टूट गया तो टूट गया ।
मदिरालय का आँगन देखो, कितने प्याले हिल जाते हैं, गिर मिट्टी में मिल जाते हैं ।
जो गिरते हैं ओ कब उठते हैं, पर बोलो टूटे प्याले पर, कब मदिरालय पछताता है ।
जो बीत गई सो बात गई ।
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए, मधु घट फूटा ही करते हैं, लघु जीवन लेकर आए हैं प्याले टूटा ही करते हैं ।
फिर भी मदिरालय के अन्दर, मधु के घट हैं मधु प्याले हैं, जो मादकता के मारे हैं ।
मधु लूटा ही करते हैं वह कच्चा पीने वाला है ।
जिसकी ममता घट प्यालों पर, जो सच्चे मधु से जला हुआ, कब रोता है चिल्लाता है ।
जो बीत गई सो बात गई, जो बीत गई सो बात गई ।
अग्निपथ ~ Harivansh Rai bachchan famous poem
वृक्ष हों भलें खड़े, हों घने, हों बड़ें, एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी! तू न थमेगा कभी! तू न मुड़ेगा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
यह महान दृश्य है— चल रहा मनुष्य है, अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
प्यास लगी थी गजब की
प्यास लगी थी गजब की, मगर पानी मे जहर था, पीते तो मर जाते और ना पीते तो भी मर जाते।
बस यही दो मसले, जिंदगी भर ना हल हुए ! ना नींद पूरी हुई, ना ख्वाब मुकम्मल हुए ।।
वक़्त ने कहा, काश थोड़ा और सब्र होता ! सब्र ने कहा… काश थोड़ा और वक़्त होता!!!
सुबह-सुबह उठना पड़ता है कमाने के लिए साहेब! आराम कमाने निकलता हूँ आराम छोड़कर।।
“हुनर” सड़कों पर तमाशा करता है और “किस्मत” महलों में राज करता है !!
शिकायते तो बहुत है तुझसे ऐ जिन्दगी, पर चुप इसलिये हुं कि, जो भी दिया तूने मुझे, वो भी बहुतो को नसीब नहीं होता ।।
अजीब सौदागर है ये वक़्त भी!! जवानी का लालच दे के बचपन ले गया अब अमीरी का लालच दे के जवानी ले जाएगा ।
लौट आता हूँ वापस घर की तरफ, हर रोज़ थका-हारा, आज तक समझ नहीं आया कि जीने के लिए काम करता हूँ, या काम करने के लिए जीता हूँ।।
थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी, मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे !!
भरी जेब ने ‘ दुनिया’ की पहचान करवाई और खाली जेब ने ‘ अपनो’ की
शौक तो मां बाप के पैसों से पुरे होते थे, अपने पैसे से तो सिर्फ जरूरतें पूरी होते हैं,
हंसने की इच्छा ना हो, तो भी हंसना पड़ता है, कोई पूछे तो कैसे हो? तो मजे में हूं कहना पड़ता है||
यह जिंदगी का रंगमंच है दोस्तों, यहां हर एक को नाटक करना पड़ता है,
माचिस की ज़रूरत यहां नहीं पड़ती, यहां आदमी, आदमी से जलता है ।
दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट, यह ढूंढ रहे हैं कि मंगल ग्रह पर जीवन है या नहीं?
पर आदमी ये नहीं ढूंढ रहा है, कि जीवन में मंगल है या नहीं ।।
मंदिर में फूल चढ़ा कर आए, तो यह एहसास हुआ, पत्थरों को मनाने में, फूलों का क़त्ल कर आए हम ।।
गए थे गुनाहों की माफ़ी मांगने, वहां एक और गुनाह कर आए हम|| वहां एक और गुनाह कर आए हम||
बैठ जाता हूं मिट्टी पर अक्सर
बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर, क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।
ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है, पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है ।
जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्योंकि एक जमाने से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले ।
एक घड़ी ख़रीदकर हाथ में क्या बाँध ली, वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे ।
सोचा था घर बना कर बैठूंगा सुकून से, पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला ।
सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब वो बचपन वाला ‘इतवार’ अब नहीं आता ।
जीवन की भाग-दौड़ में क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है, हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है ।
एक सवेरा था जब हँस कर उठा करते थे हम और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है ।
कितने दूर निकल गए रिश्तों को निभाते-निभाते खुद को खो दिया हमने अपनों को पाते पाते ।
लोग कहते हैं कि हम मुस्कुराते बहुत हैं लोग कहते हैं कि हम मुस्कुराते बहुत हैं और हम थक गए दर्द को छुपाते-छुपाते ।
खुश हूं और सबको खुश रखता हूं, लापरवाह हूं फिर भी सबकी परवाह करता हूं ।
चाहता हूं कि ये दुनिया बदल दूं, पर दो वक्त की रोटी की जुगाड़ से फुर्सत नहीं मिलती ।
महंगी से महंगी घड़ी पहन कर देख ली मैंने, फिर भी ये वक्त मेरे हिसाब से कभी ना चला ।
यूं ही हम दिल को साफ रखने की बात करते हैं पता नहीं था कि कीमत चेहरों की हुआ करती है ।
मुझे जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं, पर सुना है लोग सादगी में जीने नहीं देते ।
अगर खुदा नहीं है तो उसका जिक्र क्यो और अगर खुदा है तो फिर फिक्र क्यों ।
दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं एक उसका अहम और दूसरा उसका वहम ।
ख्वाहिश नही मुझे मशहुर होने की, मेरे अपने मुझे पहचानते हैं बस इतना ही काफी है ।
अच्छे ने अच्छा और बुरे ने बुरा जाना मुझे क्योंकि जिसकी जितनी जरूरत थी, उसने उतना ही पहचाना मुझे ।
जिंदगी का ये फलसफा भी कितना अजीब है, शामे कटती नहीं और साल गुजरते चले जा रहे हैं ।
एक अजीब सी दौड़ है यह जिंदगी, जीत जाओ तो कई अपने पीछे छूट जाते हैं और हार जाओ तो अपने ही पीछे छोड़ जाते है ।
आज मुझसे दूर दुनिया
भावनाओं से विनिर्मित, कल्पनाओं से सुसज्जित, कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
‘बात पिछली भूल जाओ, दूसरी नगरी बसाओ’ प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
वह समझ मुझको न पाती, और मेरा दिल जलाती, है चिता की राख कर मैं माँगती सिंदूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
स्वप्न था मेरा भयंकर
रात का-सा था अंधेरा, बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को,
भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ़ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर
आत्मपरिचय
जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ ।
नीड़ का निर्माण
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती, एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती ।।
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर ।।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर ।
यह भी पढ़ें
100 सर्वश्रेष्ठ प्रेरणादायक सुविचार
Harivansh Rai bachchan short poems in Hindi
हारना तब आवश्यक हो जाता है, जब लड़ाई अपनों से हो, और जितना तब आवश्यक हो जाता है, जब लड़ाई अपने आप से हो ।
मंजिल मिले या ना मिले ये तो मुकद्दर की बात है पर हम कोशिश ही ना करें, में तोगलत बात है।
किसी ने बर्फ से पूछा कि, कि आप इतने ठंडे क्यों हो, बर्फ नहीं है बड़ा अच्छा जवाब दिया, मेरा अतीत भी पानी, मेरा भविष्य भी पानी, फिर गर्मी किस बात पे रखूं ।
गिराना भी अच्छा है, दोस्तो औकात का पता चलता है, बढ़ते है जब हाथ उठाने को, अपनो का पता चलता है ।
सीख रहा हु, अब मै भी इंसानो को, पढ़ने का हुनर, सीख रहा हु, अब मै भी इंसानो को, पढ़ने का हुनर।सुना है, चेहरे पर किताबो से ज्यादा लिखा होता है ।
रब ने नवाज़ा हमे जिन्दगी देकर और हम है कि सोहरत मांगते रह गए । जिंदगी गुजार दी सोहरत के पीछे, फिर जीने की मौहलत मांगते रह गए।
ये कफन, ये जनाजे, ये कब्र, सिर्फ बाते हैं, मेरे दोस्त.. वरना मर तो इंसान तभी जाता है, जब याद करने वाला कोई ना हों।
ये समंदर भी, तेरी तरह खुदगर्ज निकला, जब जिंदा थे, तो तैरने न दिया, और मर गए, तो डूबने न दिया !
क्या बात करे, इस दुनिया की, यहां हर शख्श के, अपने अफसाने है । जो सामने है, उसे लोग बुरा कहते हैं, और जिसे कभी देखा ही नही, उसे सब खुदा कहते है।
आज मुलाक़ात हुई, जाती हुई उम्र से ! मैंने कहा जरा ठहरो तो, वो हॅंसकर, इठलाते हुए बोली… मैं उम्र हू ठहरती नहीं, पाना चाहतें हों मुझको, तो मेरे हर कदम के संग चलो,
मैंने भी मुस्कुराते हुए कह दिया.. कैसे चलूं मै बनकर तेरा हम कदम, तेरे संग चलने, पर छोड़ना होगा, मुझको मेरा बचपन, मेरी नादानी, मेरा लड़कपन ।
तू ही बता दे, कैसे समझदारी की दुनिया अपना लू में जहां हैं सिर्फ नफ़रते, दूरिया, शिकायते और अकेलापन ।
संबंधित कविताएं :-
Best 25+ Ramdhari Singh dinkar poems in Hindi
25+ Best Motivational Poems in Hindi