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मुगल साम्राज्य का इतिहास । History of The Mughal dynasty in Hindi

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मुगल साम्राज्य का इतिहास । History of The mughal dynasty in Hindi

मुगल साम्राज्य का इतिहास , इसके सभी शासक , शासन व्यवस्था एवं मुगल साम्राज्य के पतन के कारण 

मुगल साम्राज्य की स्थापना :- मुगल साम्राज्य की स्थापना 1526 ई० में जहीरूद्दीन मोहम्मद बाबर ( बाबर ) ने किया था अतः बाबर मुगल साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है।


मध्यकाल में किसी भी शासक के लिए भारतीय उपमहाद्वीप जैसे बड़े क्षेत्र पर जहां लोगों एवं संस्कृतियों में इतनी विविधताएं है में शासन करना मानो अत्यधिक की कठिन कार्य था अपने से पिछले शासकों के विपरीत मुगलों ने एक साम्राज्य की स्थापना की और वह कार्य पूरा किया जो अब तक केवल छोटी अवधि के लिए संभव माना जाता था सोलवीं सदी के उत्तरार्ध से मुगलों ने दिल्ली और आगरा से अपने राज्य का विस्तार शुरू किया और 17 वीं शताब्दी में लगभग संपूर्ण महाद्वीप पर अधिकार प्राप्त कर लिया उन्होंने प्रशासन के ढांचे तथा शासन संबंधी जो भी विचार लागू किए वे उनके साम्राज्य के पतन के बाद भी टीके रहे यह एक ऐसी राजनीतिक धरोहर थी जिसके प्रभाव से उपमहाद्वीप में उनके पश्चात आने वाले शासक भी अपने को अछूता ना रख सके।

मुगल साम्राज्य के शासक

1. मुगल सम्राट बाबर ( 1526-1530 ) :- 

प्रथम मुगल शासक बाबर ने जब 1494 में फरगना राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त कर लिया था तब उसकी उम्र मात्र 12 वर्ष थी लेकिन मंगोलों की दूसरी शाखा के कारण उस समय उन्हेें अपनी पैतृक गद्दी छोड़नी पड़ी अनेक वर्षों तक भटकने के बाद बाबर ने 1504 ई. में काबुल पर कब्जा कर लिया बाबर ने 1526 में पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी एवं उनके अफगान समर्थकों को हराया था और दिल्ली तथा आगरा को अपने कब्जे में ले लिया और मुगल साम्राज्य की स्थापना की बाबर ने 1526 ई. से 1530 ई. तक मुगल साम्राज्य पर शासन किया

1527 ई. में उसने खानवा में राणा सांगा , राजपूत राजाओं एवं उनके समर्थकों को हराया इसके बाद बाबर ने 1528 में चंदेरी में राजपूतों को हराया अपनी मृत्यु से पहले बाबर ने दिल्ली और आगरा में मुगल नियंत्रण स्थापित किया।


2. हुमायूं ( 1530-1540 ) और ( 1555-1556 ) :-

बाबर की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे हुमायूं ने मुगल साम्राज्य की सत्ता संभाली हुमायूं ने 1530 से 1540 ई. तथा 1555 से 1556 ई. तक मुगल साम्राज्य का शासन संभाला। हुमायूं ने अपने पिता की वसीहत के अनुसार जायदाद का बंटवारा किया जिसमें से प्रत्येक भाई को एक – एक प्रांत मिला लेकिन उनके भाई मिर्जा को यह बंटवारा पसंद नहीं आया उसके भाई मिर्जा की महत्वकांक्षाओ के कारण हुमायूं अफगान प्रतिद्वंद्वियों के सामने फीका पड़ गया शेर खान ने हुमायूं को दो बार 1539 चौसा में और 1540 में कन्नौज में हराया इन पराजयों ने हुमायूं को ईरान की ओर भागने को मजबूर कर दिया ईरान में हुमायूं ने साफा बेयर साहब की मदद ली इसके बाद उसने 1555 में दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया परंतु उसके अगले साल ही एक दुर्घटना के दौरान हुमायूं की मृत्यु हो गई।

3. अकबर ( 1556-1605 ) :- 

अकबर ने 1556 से 1605 ई. तक मुगल साम्राज्य पर राज किया। अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद अकबर को 13 वर्ष की छोटी सी आयु में ही मुगल साम्राज्य का सम्राट बनाया गया इतिहासकारों ने अकबर के शासनकाल को तीन अवधियों में बांटा है।

प्रथम अवधि 1556 से 1570 ई. तक माना जाता है। 1556 से 1570 के बीच अकबर अपने संरक्षक बैरम खान और अपने घरेलू कर्मचारियों से स्वतंत्र हो गया था उसने पुरी और अन्य अफ़गानों ,निकटवर्ती राज्यों, मालवा और कुणवाणा अपने सौतेले भाई मिर्जा हकीम और उसके विद्रोह को दबाने के लिए कई सेन्य अभियान चलाएं अकबर ने 1568 में सिसोदिया की राजधानी चित्तौड़ और 1570 में रणथंबोर पर कब्जा कर लिया।

1570 से 1585 ई. को अकबर के शासन काल की दूसरी अवधि माना जाता है। अकबर ने 1570 से 1585 के बीच गुजरात के विरुद्ध सैनिक अभियान चलाए इन अभियानों के पश्चात उसने पूर्व में बिहार, बंगाल और उड़ीसा में अभियान चलाया जिन्हें 1579 से 1580 में मिर्जा हकीम के पक्ष में विद्रोह ने और जटिल कर दिया।

जबकि 1585 से 1605 ई. के बीच के शासन को अकबर के शासन काल की तीसरी अवधि माना जाता है 1585 से 1605 के बीच अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया उत्तर पश्चिम में अभियान चलाया गया अकबर ने सफाविदो को हराकर कंधार पर कब्जा कर लिया और कश्मीर को भी मुगल साम्राज्य में मिला मिर्जा हाकीम की मृत्यु के पश्चात काबुल को भी सम्राट अकबर ने अपने साम्राज्य में मिला लिया इसके बाद उसने दक्कन के विरुद्ध अभियान की शुरुआत की उसने खानदेश और अहमदनगर के कुछ हिस्सों को भी अपने राज्य में मिला लिया।
अपने शासन के अंतिम वर्षों में अकबर की सत्ता राजकुमार सलीम के विद्रोह के कारण लड़खड़ा गई थी यह सलीम आगे चलकर जहांगीर कहलाया।

अकबर की नीतियां :- प्रशासन का मुख्य अभिलक्षण अकबर ने निर्धारित किया था और उनका विस्तृत वर्णन अबुल फजल के अकबरनामा विशेषकर आइन-ए-अकबरी में मिलता है अबुल फजल के अनुसार साम्राज्य कई प्रांतों में बॅंटा हुआ था जिन्हें सूबा कहा जाता था सुबो के प्रशासक सूबेदार कहलाते थे जो राजनीतिक तथा सैनिक दोनों प्रकार के कार्यों का निर्वाह करते थे प्रत्येक प्रांत में एक व्यक्ति अधिकारी होता था जो देवान कहलाता था कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सूबेदार को अन्य अफसरों का सहयोग प्राप्त था जैसे कि पक्षी यानी सैनिक वेतन अधिकारी सदर यानी धार्मिक कार्यों वाला मंत्री फौजदार यानी सेनानायक और कोतवाल यानी नगर का पुलिस अधिकारी।

अकबर के अभीजात मुगल साम्राज्य की सेनाओ का संचालन करते थे और बड़ी मात्रा में राजस्व खर्च करते थे जब तक ये अभिजात वर्ग वफादार रहे साम्राज्य का कार्य सफलतापूर्वक चलता रहा परंतु 16 वीं सदी के अंत तक साम्राज्य के प्रति उनकी वफादारी उनके निजी हितों के कारण कमजोर पड़ गई थी। 1570 में अकबर जब फतेहपुर सीकरी में था तो उसने ब्राह्मणों, पादरियों और अन्य धर्म के अनुयायियों के साथ धर्म के मामलों पर चर्चा शुरू की ये चर्चाएं इबादतखाना में हुई।

अकबर की रूची विभिन्न धर्म के लोगों के रीति-रिवाजों में थी जिसके कारण अकबर ने विभिन्न धर्मों के धार्मिक गुरुओं से उनके धर्म के बारे में जानकारी ली इस विचार विमर्श से अकबर को समझ में आ गया कि जो विद्वान धार्मिक रीति रिवाजों और मतांधता पर बल देते हैं वे अक्सर कट्टर होते हैं उनकी शिक्षाएं प्रजा के बीच विभाजन और असमंजस पैदा करते हैं।

यह अनुभव अकबर को सोलह-ए-कुल या सर्वत्र शांति के विचार की ओर ले गया उसने अपना एक स्वयं का धर्म दीन-ए-इलाही धर्म का प्रतिपादन किया सहिष्णुता की यह धारणा विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में अंतर नहीं करती थी बल्कि यह सभी धर्मों का एक केंद्रीय बिंदु था नीतिशास्त्र की एक व्यवस्था जो सर्वत्र लागू की जा सकती थी जिसमें केवल सच्चाई, न्याय और शांति पर बल दिया गया था इस धर्म को मानने वाला एकमात्र हिंदू बीरबल था बीरबल अकबर के नवरत्नों में से सबसे प्रमुख था अकबर के नवरत्नों में से एक अबुल फजल ने सोलह-ए-कुल विचार पर आधारित शासन दृष्टि बनाने में अकबर की मदद की शासन की इस सिद्धांत को जहांगीर और शाहजहां ने भी अपनाया।

4. जहांगीर ( 1605-1627 ):-

मुगल सम्राट जहांगीर ने 1605 से 1627 ई. मुगल साम्राज्य का शासन संभाला उसने अकबर के सेन्य अभियानों को आगे बढ़ाया।

मेवाड़ के सिसोदिया शासक अमर सिंह ने मुगलों की सेवा स्वीकार की इसके बाद जहांगीर ने सीखो एवं अहमदनगर के खिलाफ अभियान चलाया जो पूरी तरह सफल नहीं हुआ जहांगीर के शासन के अंतिम वर्षों में राजकुमार खुर्रम ने उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया था यही राजकुमार खुर्रम आगे चलकर शाहजहां के नाम से प्रसिद्ध हुआ जहांगीर की पत्नी नूरजहां ने शाहजहां को मारने के लिए उसे हशिये पर धकेलने का प्रयास किया जिसमें वह असफल रहा।

5. शाहजहां ( 1627-1658 ) :- 

मुगल शासक शाहजहां ने 1627 ई. में मुगल साम्राज्य की सत्ता संभाली और 1658 ई. तक मुगल साम्राज्य पर शासन किया शाहजहां ने दक्कन के खिलाफ अभियान चलाया  एक अफगानी ‘रईस खान लोधी’ ने शाहजहां का विरोध किया और वह पराजित हुआ इसके बाद उसने अहमदनगर के बुंदेलो के विरुद्ध अभियान चलाया जिसमें बुंदेलों की हार हुई इसके पश्चात उसने पूरे अहमदनगर पर कब्जा कर लिया उत्तर पश्चिम में बल पर कब्जा करने के लिए उनके विरुद्ध अभियान चलाए गए जो असफल रहे परिणाम स्वरूप कंधार सफावेदों के हाथों में चला गया।

6. औरंगजेब ( 1658-1770 ) :- 

1658 से 1707 तक औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य पर शासन किया उत्तर पूर्व में घूमो की पराजय ही परंतु उन्होंने 1680 में दोबारा विद्रोह किया उत्तर पश्चिम में यूसुफजई और सिखों के विरोध औरंगजेब के अभियान को अस्थाई सफलता मिली मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों ने मुगलों के खिलाफ विद्रोह किया इसका कारण था उनके आंतरिक राजनीति उत्तराधिकार के मसलों में मुगलों का हस्तक्षेप।

मराठा सम्राट शिवाजी के विरुद्ध औरंगजेब ने कई अभियान चलाए जिसमें वह सफल भी हुआ परंतु औरंगजेब ने शिवाजी का अपमान किया और उन्हें कारागार में डाल दिया शिवाजी आगरा स्थित मुगल कैदखाने से भाग निकले शिवाजी ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित करने के पश्चात मुगलों के खिलाफ पुनः अभियान चलाया आगे चलकर राजकुमार शिवाजी ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह किया जिसने उसे मराठों और दक्कन के सल्तनत का सहयोग मिला अंततः वह ईरान के सफावेदों की तरफ भाग गया।

उत्तराधिकार की मुगल परंपराएं :- 

मुगल ज्येष्ठाधिकार के नियम में विश्वास नहीं करते थे जिसमें जेष्ठ पुत्र यानी बड़ा बेटा राज्य का उत्तराधिकारी होता था इसके विपरीत उत्तराधिकार में वे तैमूर वंश की परंपरा या प्रथा को अपनाते थे जिसमें उत्तराधिकार का विभाजन समस्त पुत्रों में कर दिया जाता था।

मुगलों के अन्य शासकों के साथ संबंध :-

मुगलों ने उन शासकों के विरुद्ध लगातार अभियान चलाएं जिन्होंने उनकी सत्ता को स्वीकार करने से मना कर दिया था जब मुग़ल शक्तिशाली हो गए तो कोई अन्य शासकों ने स्वेच्छा से उनकी सत्ता को स्वीकार कर लिया था राजपूत इसका एक अच्छा उदाहरण है अनेक राजाओं ने मुगल घराने में अपनी पुत्रियो का विवाह करा कर खुश पदों को प्राप्त किया था परंतु कई सांसदों ने इसका विरोध किया मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत लंबे समय तक मुगलों की सत्ता को अस्वीकार करते रहे परंतु जब यह हारे तो मुगलों ने उनके साथ सम्माननीय व्यवहार किया और उन्हें उनकी जागीर वतन जागीर के रूप में वापस कर दी पराजित करने परंतु अपमान न करने के बीच सावधानी से बनाये गये संतुलन की वजह से मुगल भारत के अनेक शासको व सरदारों पर अपना प्रभाव बढ़ा पाए थे परंतु इस संतुलन को हमेशा बरकरार रखना कठिन था।

मुगल साम्राज्य में मनसबदार और जागीरदार की भूमिका :- 

जैसे-जैसे साम्राज्य में विभिन्न क्षेत्र सम्मिलित होते गए वैसे-वैैैसे मुगलों ने तरह-तरह के सामाजिक वर्गों के सदस्यों को प्रशासन में नियुक्त करना शुरू किया। शुरू में ज्यादातर सरकार तुर्की या ईरानी थे लेकिन अब इस छोटे समूह के साथ-साथ उन्होंने शासक वर्ग में ईरानियों भारतीय मुसलमानों, अफगानो, राजपूतों, मराठों और अन्य समूह को भी सम्मिलित किया मुगलों की सेवा में आने वाले नौकरशाह मनसबदार कहलाते थे मनसबदार शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था जिन्हें कोई मनसब या कोई सरकारी हैसियत वाला पद मिलता हो यह मुगलों द्वारा चलायी ग‌‌ई एक श्रेणी व्यवस्था थी जिसके जरिए पद , वेतन एवं सेना उत्तरदायित्व निर्धारित किए जाते थे मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित करने वाली भूमि के रूप में पाते थे जिन्हें जागीर कहा जाता था।

अकबर के शासन काल में जागीरो का स्वाधीनता पूर्वक आकलन किया जाता था ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन के तकरीबन बराबर रहे औरंगजेब के शासनकाल तक पहुंचते-पहुंचते स्थिति बदल गई अब प्राप्त राजस्व मनसबदार के वेतन से बहुत कम था मनसबदार की संख्या में भी अत्यधिक वृद्धि हुई जिसके कारण उन्हें जागीर मिलने से पहले लंबा इंतजार करना पड़ता था इन सभी कारणों से जागीरो की संख्या में कमी हो गई फलस्वरूप कई जागीरदार जागीर रहने पर यह कोशिश करते थे कि वह जितना राजस्व वसूल कर सके वसुल ले अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों तक औरंगजेब इन परिवर्तनों पर नियंत्रण नहीं रख पाया इस कारण किसानों को अत्यधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

मुगल साम्राज्य में जब्त और जमींदार की भूमिका :- 

मुगलों की आमदनी का प्रमुख साधन किसानों की उपज से मिलने वाला राजस्व था अधिकतर स्थानों पर किसान ग्रामीण कुलीन यानी गांव का मुखिया तथा स्थानीय सरदारों के माध्यम से राजस्व देते थे समाज का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्थानीय ग्राम के मुखिया हो या फिर शक्तिशाली सरदार हो एक ही शब्द जमींदार का प्रयोग करते थे अकबर के राजस्व मंत्री टोडरमल ने 10 साल 1570 से 1580  की कालावधि के लिए कृषि की पैदावार कीमतों और कृषि की भूमि का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया इन आंकड़ों केेेेेे आधार पर प्रत्येक फसल पर कर यानी राजस्व सुनिश्चित किया गया था सूबे को राजस्वमंडलो में बांटा गया था वह किसी की हर फसल के लिए राजस्व की अलग-अलग सूची बनाई गई थी।

राजस्व प्राप्त करने की व्यवस्था को जब्त कहा जाता था यह व्यवस्था उन स्थानों पर परिचालित है जहां पर मुगल प्रशासनिक अधिकारी भूमि का निरीक्षण कर सकते थे और सावधानीपूर्वक उनका हिसाब रखते थे लेकिन ऐसा निरीक्षण गुजरात और बंगाल जैसे प्रांतों में संभव नहीं था कुछ क्षेत्रों में जमींदार इतने शक्तिशाली थे कि मुगल शासकों द्वारा शोषण किए जाने की स्थिति में वे विद्रोह कर सकते थे कभी – कभी एक ही जाति के जमींदार किसान मुगल सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर देते थे 17 वीं शताब्दी के अंत से ऐसे किसान विद्रोह ने मुगल साम्राज्य के स्थायित्व को काफी चुनौती दी।

17 वीं शताब्दी के बाद मुगल नीतियां :- 

मुगल साम्राज्य के प्रशासनिक और सैनिक कुशलता के फलस्वरूप मुगल साम्राज्य की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि में वृद्धि हुई विदेशी यात्रियों ने इसे ऐसा धनी देश बताया जैसा की किस्से कहानियों में वर्णित होता है परंतु यही यात्री इसी  चर्चा के साथ मिलने वाली दरिद्रता को देखकर विस्मित रह गए यहां सामाजिक असमानताएं साफ-साफ दिखाई पड़ती थी।

मुगल साम्राज्य और उनके मनसबदार अपनी आय का बहुत बड़ा भाग वेतन और अन्य वस्तुओं पर लगा देते थे इस खर्चे में शिल्पकारों और किसानों को लाभ होता था क्योंकि वह वस्तु और फसलों की आपूर्ति करते थे परंतु राजस्व का भात इतना था कि प्राथमिक उत्पादकों को किसान और शिल्पकारों के पास निवेश के लिए बहुत कम धन बचता था इनमें से जो बहुत गरीब थे मुश्किल से ही पेट भर पाते थे ऐसी अर्थव्यवस्था में ज्यादा धनी किसान , शिल्पकारों के समूह , व्यापारी और महाजन ज्यादा लाभ उठाते थे।

मुगल साम्राज्य का पतन :-

जैसे-जैसे मुगल सम्राट की सत्ता पतन की ओर बढ़ती गयी वैसे – वैसे विभिन्न क्षेत्र के सम्राट की सेना सत्ता के शक्तिशाली केंद्र बनाने लगे इनमें से कुछ ने नए वंश की स्थापना की और हैदराबाद और अवध जैसे प्रांतों में अपना नियंत्रण जमा लिया हालांकि वे दिल्ली के मुगल सम्राट को स्वामी के रूप में मान्यता देते थे लेकिन फिर भी 18वीं शताब्दी तक साम्राज्य के क‌ई प्रांत अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बना चुके थे।

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